Friday, March 5, 2010

कुछ लफ्ज़ जो दिल से निकले

है शौक़ बगुत लिखूं उस पर मैं कोई नग़मा

लिखने को मगर साज़-ओ- सामान नहीं मिलता

या रब तेरी दुनिया में कैसा ये क़ेहेर टूटा
इंसान के जामे में इंसान नहीं मिलता


ए काश लिखूं खुद ही, और खुद न समझ पाऊं
ऐसा कोई पेचीदा उन्वान नहीं मिलता


वो सुन के जिसे एकदम बेचैन से हो जाएँ
कहने को कोई ऐसा अशआर नहीं मिलता


तकसीम किया मुझको उसने कुछ इस तरह से
हैं जिस्म-ओ-दिल तो अपने पर एहसास नहीं मिलता


बेजान सी एक शै हूँ बाज़ार में खड़ी हूँ
बिकने को तो बिक जाऊं खरीदार नहीं मिलता


दौर-ए-जदीद है ये दामन बचा के चलना
फैशन परस्त लोगों में किरदार नहीं मिलता


हर दिन यही ख़बर है इतने मरे यहाँ पर
खूं रेज़ी न हो जिसमे वो अखबार नहीं मिलता


आओ जो मेरी कब्र पे तो अश्क न बहाना
रोने से मरने वाले को करार नहीं मिलता


हो और सितम किस पर है कौन सिवा तेरे
उनको वफ़ा तुझसा कोई नादान नहीं मिलता

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