Wednesday, October 28, 2009

दुनिया की भीड़ में खोती जा रही हूँ मैं
तनहाइयों में ग़र्क़ होती जा रही हूँ मैं

कोई अपना मेरे क़रीब नहीं
और गैरों से दूर जा रही हूँ

मेरी दुनिया में कोई नहीं आने वाला
फिर ये किसके लियेख़ुद को सजा रही हूँ मैं

मौत फैलाए हुए बाहें बुलाती है मुझे
और ज़िन्दगी की सिम्त बढ़ी जा रही हूँ मैं

दुनिया में जियूं तनहा और मर जाऊं अकेले
शायद ये मुहब्बत की सज़ा पा रही हूँ मैं

जो रूठ कर मुझसे चला गया है बहुत दूर
क्यूँ दे के सदाएं उसे  बुला रही हूँ मैं






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